Tuesday, July 12, 2022

अशोक चिन्ह के धर्मचक्र की 24 तीलियाँ – शुद्ध सार्वजनीन धर्म का सन्केत





18 जुलाई 1947 को ब्रिटेन की संसद ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित किया, जिसके अनतर्गत एक तरफ तो भारत 15 अगस्त 1947 को स्वाधीन हो रहा था और दूसरी ओर उसके पूर्व और पश्चीमी अङ्ग काट कर मुसलमानों के लिए अलग देश, पाकिस्तान का गठन किया जा रहा था।

22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने भारत का नया ध्वज निश्चित किया जिसके मध्य में, पं जवाहरलाल नेहरू ने कहा, कि अशोक चिन्ह से लिया गया धर्म चक्र होगा।

ये साफ नहीं है कि किस दिन सम्राट अशोक के सारनाथ स्तम्भ पर पाए गए सिंह चिन्ह को भारत का राजकीय चिन्ह घोषित किया गया, पर 25 अक्तूबर 1947 को कश्मीर का भारतीय सङ्घ में विलय करते समय जिस समझौते पर लॉर्ड माउंटबैटन ने हस्ताक्षर किया, वहाँ भारतीय अधिराज्य का चिन्ह तो ब्रिटेन का ही था।  और 17 नवम्बर 1947 की संविधान सभा की वैधानिक विषयों पर हुई चर्चा की जो रिपोर्ट प्रस्तुत की गई, उस पर ब्रिटेन के राजकीय चिन्ह के स्थान पर सम्राट अशोक के सारनाथ स्तम्भ पर पाया गया सिंह चिन्ह था, और उसके नीचे लिखा था – धर्मचक्र प्रवर्तनाय।


फिर कहा जाता है कि 26 जनवरी 1950 को इस चिन्ह में बदलाव के साथ उसको नए गणतंत्र का चिन्ह घोषित किया गया, अब उसके नीचे – सत्यमेव जयते लिखा जाता है। इसके बिना यह भारत का राजकीय चिन्ह नहीं माना जाता।

अब भारत के नए संसद भवन के शीर्ष पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसी अशोक चिन्ह को सोलह हजार किलो काँसे में बनवा कर रखवाया है। 

पर इस आलेख में हमारी रुचि अशोक चिन्ह में मिलने वाले धर्मचक्र पर रहेगी।

 



धर्मचक्र

यह सर्वविदित है कि सम्राट अशोक ने अपने राज्याभिषेक के साढ़े तीन साल होने पर अपने बड़े भाई सुसीम के पुत्र, सात वर्षीय अरहत निग्रोध से पहली बार तीन रत्नों की शरण ली।  इसके बाद वे भिक्षुओं से मिलते, धर्म प्रवचन सुनते दान इत्यादि करते। इसके बाद ही मात्र तीन वर्षों के समय में, राज्याभिषेक के आठवें वर्ष में 84,000 स्तूपों का निर्माण कार्य पूरा करवाया। बुद्धवाणी, जिसे तिपिटक कहते हैं, में 84,000 धर्मस्कंध हैं, और इसलिए सम्राट अशोक ने 84,000 स्तूपों का निर्माण करवाया। ये अशोक के सारे साम्राज्य में फैले हुए थे और इनमें भगवान बुद्ध के अतिरिक्त उनके अग्र श्रावक सारिपुत्त व मोग्गल्लिपुत्त तिस्स की शरीर धातु भी सन्निधानित है जो, साधकों के अनुभव में, आज भी निर्वाण धातु का संचार करती रहती हैं। इसी घटना के घटने पर चण्ड माने जाने वाले अशोक को धम्माशोक के नाम से जाना जाने लगा।


पर अशोक अभी धर्म से दूर थे। कलिङ्ग का युद्ध हुआ। राज्याभिषेक का आठवाँ वर्ष था। इतनी भारी मात्रा में नरसंहार, विस्थापन व युद्ध के परिणाम स्वरूप अन्य दुखद अवस्था को देख अशोक का चित्त पूरी तरह अस्थिर हो चुका था। एक ओर भगवान बुद्ध की शिक्षा से जुड़े वो प्रवचन जिन्हें वो प्रतिदिन सुना करते, और दूसरी ओर ऐसा भीषण, वीभत्स नरसंहार।

अशोक बहुत समझदार सम्राट थे। 20 वर्ष की आयु से ही अपना कौशल दिखा रहे थे। कथनी और करनी का अन्तर तुरन्त समझ गए। केवल प्रवचन सुनना और बताए हुए मार्ग पर चलना, उसे अपने जीवन में उतारना, ये दोनों बिलकुल अलग बातें हैं। यही सम्राट अशोक का बुद्ध, धर्म और सङ्घ की शरण में आने का दूसरा अवसर माना जाता है।  खुद को धर्म में पकाने के लक्ष्य से, उन्होंने विपश्यना साधना सीखने का निर्णय किया और उचित व्यवस्था कर अपने राज्याभिषेक के आठवें वर्ष में ही वे भिक्षुगतिक हो, सङ्घ के साथ रहने लगे, उन्हीं के साथ धर्मयात्रा पर निकले, और कहा जाता है कि 256-300 दिवस वे राज्य से बाहर भिक्षु का सा जीवन जीते हुए स्वयं को धर्म पथ पर दृढ़ करने के लिए साधना का अभ्यास करते रहे।

वापस आ कर जब राजपाट सम्भाला, तब उन्होंने समय समय पर अपनी प्रजा को कुछ आदेश दिए जिन्हें उनके साम्राज्य में अलग-अलग स्थान पर चट्टानों या स्तम्भों पर लिखवाया गया। ये आदेश मूलतः धर्म सम्बंधी होती थे, और अपने राज्याभिषेक के सत्ताइसवें वर्ष में बनवाए स्तम्भ अभिलेख में उन्होंने इस बात को साफ कहा कि ये धम्मलिपियाँ हैं। इनकी भाषा पालि होती थी और लिखावट में ब्राह्मी लिपी का उपयोग होता था।

जो स्तम्भ थे उनके लिए पत्थर चुनार या मथुरा से आते थे और उनके शीर्ष पर अलग-अलग प्रकार के चिन्ह होते थे। ऐसा ही एक स्तम्भ सारनाथ में था, जहाँ भगवान बुद्ध ने सम्बोधि प्राप्ति के आठ सप्ताह बाद, आषाढ की पूर्णिमा के दिन धर्मचक्र का प्रवर्तन किया, और इस कारण भगवान बुद्ध की शिक्षा को मानने वाले उस दिन को गुरु पूर्णिमा या धर्मचक्र प्रवर्तन दिवस के रूप में मनाते हैं। भारत के अन्य सम्प्रदाय भी इस दिन को अपनी मान्यताओं के आधार पर गुरू पूर्णिमा के रूप में मनाते हैं। कल गुरू पूर्णिमा है।

सारनाथ के स्तम्भ में लगे उस चिन्ह में जो धर्मचक्र है, वह तो भगवान बुद्ध की शिक्षा या धर्म का ही एक संकेत है।

धर्म चक्रों में कभी पाँच तीलियाँ दिखाई दें तो ये पाँच शील की शिक्षा को दर्शाता है, आठ तीलियाँ दिखाई दें तो आर्य आष्टाङ्गिक मार्ग को दर्शाता है, और 24 तीलियाँ दिखाई दें तो ये या तो भगवान की शिक्षा के स्तम्भ प्रतीत्यसमुत्पाद की बारह अनुलोम कड़ियों और बारह प्रतिलोम कड़ियों को दर्शाएगा या अभिधम्म के महाप्रकरण पट्ठान में बताए गए 24 प्रत्ययों को दर्शाएगा। परन्तु इस आलेख में महाप्रकरण का संकेत चर्चा में नहीं लिया जाएगा, वह केवल गम्भीर साधकों का अधिकार क्षेत्र है।



कुछ मित्रों ने यह भी ध्यान दिलाया कि सारनाथ स्तम्भ के शीर्ष पर 32 तीलियों वाला धर्मचक्र भी होता था। पहले तो ये ध्यान नहीं आया कि 32 धर्म कौन से बताए गए हैं, क्योंकि बुद्ध प्रवचन देते समय धर्मों की गणना कर दिया करते थे जिससे गृहस्थ-गृहत्यागियों सभी के लिए बड़ा आसान होता था प्रवचन को ठीक से याद रखना, क्योंकि तब लेखन का काम तो इतना था नहीं। तो जब मूर्तिकारों के संकेत चलते हैं तो उन्हीं गणनाओं से जान लिया जाता है कि किस उपदेश का संकेत है, कौन से धर्मों की बात हो रही है।  

बहरहाल, सोने जा रहे थे तब ये बात पर ध्यान गया कि 32 तीलियों वाला चक्र तो स्वयं बुद्ध को ही दर्शाएगा। ऐसा क्यों, तो भगवान की वाणी में अनेक स्थान पर हमें महापुरुषों के बत्तीस लक्षणों के बारे में सुनने मिलता है। बुद्ध के पहले से भारत में एक विद्या प्रचलित थी - लक्षण शास्त्र। ये विद्या अब लुप्त हो चुकी है। इसमें शारीरिक लक्षण देखते थे। और दो प्रकार के व्यक्ति महापुरुष कहलाते थे, एक तो कोई बुद्ध हो (जिसने लौकिक-पारलौकिक सत्य को अनुभव से बूझ लिया हो और स्वयं निर्वाण की अवस्था का साक्षात्कार कर लिया हो) और दूसरा, चक्रवर्ती सम्राट। ये शारीरिक लक्षण 32 गिने जाते थे। बुद्ध के जन्म के पाँचवें दिन जब उनके पिता महाराज शुद्धोदन ने आठ ब्राह्मणों को शिशु को देख उसके भविष्य का संकेत समझने और उसका नाम रखने के लिए बुलाया, तब यही लक्षण देखकर उन्होंने ये भविष्यवाणी की थी कि या तो ये चक्रवर्ती सम्राट बनेंगे, या फिर सम्यक् सम्बुद्ध।  और इसी कारण, कि अपना अर्थ सिद्ध कर लेगा, शिशु को नाम दिया - सिद्धार्थ। आगे भी, जब उन्होंने बुद्धत्व प्राप्त कर लिया, तब उस समय के अनेकों ख्याति प्राप्त विद्वान ब्राह्मणों ने, जैसे ब्रह्मायु या बावरी ऋषि के सोलह शिष्यों ने, पहले उनके शरीर के 32 लक्षणों को ही जाँचा। इस कारण से, अगर चक्र में 32 तीलियाँ हैं तो वे स्वयं बुद्ध को ही दर्शाती हैं और इसलिए स्तम्भ के शीर्ष पर रखी गईं।

प्रतीत्यसमुत्पाद


वैशाख पूर्णिमा के दिन, बोधि प्राप्ति से पहले, उन दिनों के बिहार में वैशाख की दिन की गर्मी के सूर्यास्त के साथ शान्त होने पर, बोधिसत्त्व सिद्धार्थ गौतम नहा-धो कर, सुजाता की दी हुई खीर खा कर, फिर साधना करने के लिए एक योग्य स्थल व वृक्ष ढूँढ़ कर बैठ गए। साँस पर ध्यान देते हुए, मन को एकाग्र कर चौथे ध्यान में प्रवेश कर विपश्यना साधना का अभ्यास करने लगे, सभी नाम-रूप धर्मों की अनित्यता का आनुभाविक दर्शन करते रहे। रात के पहले याम में (शाम 6 से रात 10 बजे के बीच) उन्होंने अपनी पूर्वनिवास की अनुस्मृति की शक्ति के आधार पर अपने सारे पूर्व जन्म देख लिए और अपने को कभी पशु, कभी मानव, कभी देव, कभी ब्रह्म योनियों में उत्पन्न पाया। कभी दीन-हीन, कभी समृद्ध, कभी अस्वस्थ, तो कभी स्वस्थ, शक्तिशाली संस्थान वाला पाया। तो रात के दूसरे याम में (रात 10 से रात 2 बजे तक) अपनी दिव्यदृष्टि व यथाकर्म उपज की शक्ति से देखा कि संसार में प्राणी प्राण छोड़ रहे हैं और उनका पुनः जन्म हो रहा है, ऐसा क्यों हो रहा है
? तो ऐसा इस कारण हो रहा है कि वे अपने मृत्यु के क्षण में किसी न किसी प्रकार का राग अथवा द्वेष जगा देते हैं और उसके कारण उनका अलग अलग लोकों में, अलग अलग परिस्थितियों में पुनः जन्म हो रहा है। तो प्रश्न उठता है कि वे लोग अपनी मृत्यु के क्षण में ऐसे राग-द्वेष के संस्कार को क्यों जागने देते हैं। इसी का उत्तर रात के तीसरे पहर (रात 2 बजे से सुबह 6 बजे तक) में मिला, कि अरे! ये जानते ही नहीं न कि ऐसा करने से ऐसा हो रहा है।

तब प्रतीत्यसमुत्पाद की वे अनुलोम क्रम से बारह कड़ियाँ देखते हैं, जिसके कारण कोई प्राणी भवचक्र में फँसा रहता है।

अविद्या (1) के आधार पर संस्कार (2) उठते हैं,

संस्कार के आधार पर विज्ञान (3) उठता है, [विज्ञान=चित्त]

विज्ञान के आधार पर नाम-रूपों (4) की उत्पत्ति होती है,

नाम-रूप के आधार पर छह आयतनों (5) का निर्माण होता है,

छह आयतनों के होने से उनका अपने इंद्रिय विषयों से सम्पर्क (6) होता है,

विषयों से सम्पर्क होने पर उनका अनुभव (7) होता है, [अनुभव=वेदना]

अनुभव होने से उसके प्रति तृष्णा (8) जागती है, [तृष्णा=राग और द्वेष]

तृष्णा के जागते रहने से ऐसे अनुभव के प्रति आसक्ति (9) होने लगती है, [उपादन=आसक्ति या चिपकाव]

आसक्ति फिर अगले भव (10) का कारण बन जाती है,

भव के कारण फिर जन्म (11) होता है, [जाति=जन्म]

जन्म होने से जरजरित होना, मृत्यु होना, शोक-परिदेव-दुख-दौर्मनस्य-उपाया (12) उत्पन्न होते हैं।

 और इस प्रकार केवल दुख स्कंध का उत्पाद होता है।

 

तो इस भवचक्र से निकलना है, भवमुक्त होना है, निर्वाण प्राप्त करना है, तो अविद्या को दूर करना होगा, प्रज्ञा को प्राप्त करना होगा, प्रत्यक्ष ज्ञान, अनुभव पर आधारित ज्ञान को प्राप्त करना होगा। इन कड़ियों को तोड़ना होगा, वो प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रतिलोम क्रम की बारह कड़ियाँ कही गईं।

 

अविद्या (1) के खत्म होने से, राग के अशेष हो जाने पर, संस्कार (2) नहीं उठते,

संस्कार के नहीं जागने पर विज्ञान (3) नहीं उठता,

विज्ञान के नहीं उठने पर नाम-रूपों (4) की उत्पत्ति नहीं होती,

नाम-रूपों की उत्पत्ति नहीं होने पर छह आयतनों (5) का निर्माण नहीं होता,

छह आयतनों के निर्माण न होने पर उनका अपने अपने इंद्रिय विषयों से सम्पर्क (6) नहीं हो सकता,

सम्पर्क न होने पर अनुभव (7) नहीं हो सकता,

अनुभव नहीं होने पर तृष्णा (8) नहीं जाग सकती,

तृष्णा के नहीं जागने से आसक्ति (9) नहीं हो सकती,

आसक्ति के नहीं होने पर नया भव (10)का कारण नहीं बन सकता,

भव के न होने पर नया जन्म (11) नहीं हो सकता,

नया जन्म न होने पर जरजरित होना, मृत्यु होना, शोक-परिदेव-दुख-दौर्मनस्य-उपाया (12) भी नहीं हो सकते।

और इस प्रकार केवल इस दुख स्कंध का निरोध हो जाता है।

 

इस अविद्या को दूर करने का उपाय क्या है, मार्ग क्या है, यह बुद्ध ने चार आर्य सत्यों की व्याख्या करते समय सारनाथ में ही अपने पहले उपदेश में चौथे आर्य सत्य अर्थात आर्य आष्टाङ्गिक मार्ग को समझाते हुए कर दिया था, जिसको दर्शाने के लिए आपने अनेकों बार आठ तीलियों वाला धर्मचक्र अनेक स्थानों पर देखा होगा। और शिक्षा को क्रिया में कैसे लाना है, जीवन में कैसे उतारना है, उसके लिए विपश्यना साधना सिखाई, जो आज भी अनेक केन्द्रों पर सिखाई जाती है।

ऊपर जो प्रतीत्यसमुत्पाद की कड़ियाँ बताई गई हैं, वे मूलतः पालि भाषा में कही गईं थीं, लेकिन पाठकों कि सुविधा को ध्यान में रखते हुए यहाँ पर केवल सरल हिन्दी अनुवाद ही बताया जा रहा है।

ये ध्यान रखना चाहिए कि बुद्ध के पहले भी भारत आध्यात्मिक ऊँचियों का देश था, यहाँ अनेकों संत, ऋषि-मुनि हुए। पर समय समय पर धर्म की कुछ सूक्ष्म बातों का लोप होता रहता है, जिसके कारण किसी समय में समाज धर्म से मिलने वाले लाभ से वंचित रह जाता है। तब, इस प्रकार से लोकसेवा करने के लक्ष्य से कोई प्राणी अनेक जन्मों से तपता हुआ, ऐसे समय में जन्म लेता है, जब समाज ने धर्म के किसी सूक्ष्म विषय को खो दिया। अपनी पूर्व पुण्य पारमिताओं के बल पर वे धर्म के उस मार्ग का फिर बोध कर लेते हैं, केवल इसलिए बुद्ध नाम से प्रख्यात होते हैं।

ये प्रतीत्यसमुत्पाद की अनेक कड़ियों को भारत के मनीषी, ऋषि-मुनि जानते ही थे, केवल एक कड़ी ऐसी बताई जाती है जिसके खो जाने पर एक बुद्ध उसे फिर खोज निकालता है और वह कड़ी है – अनुभव से तृष्णा जागती है (वेदना पच्चया तण्हा)। जहाँ समाज यही मानता रहता है कि इन्द्रिय विषयों के सम्पर्क में आने से तृष्णा जागती है, इसलिए इस श्रंखला को तोड़ने का उपाय ठीक से नहीं ढूँढ़ पाता, वहीं अनुभव से तृष्णा जागती है समझ आने पर साधक अपनी साधना में यही अभ्यास करता है कि अनुभव होने पर प्रज्ञा ही जगे, वह अनुभव की अनित्यता, सार-हीनता, अनित्यता से होने वाली दुक्खता, उस अनुभव पर अधिकार-हीनता को दृष्टाभाव से देखता है, तटस्थभाव से देखता है। और यूँ देखते-देखते एक समय अपने सारे राग-द्वेष के संस्कारों से मुक्त हो जाता है, निर्वाण की अवस्था का साक्षात्कार कर लेता है, भव मुक्त हो जाता है, अमर हो जाता है, अच्युत हो जाता है, परम पद को प्राप्त कर लेता है।

जिसे नानकदेव ने अपने शब्दों में भी अमर कर दिया:

थापिया न जाई, कीता न होई, आपो आप निरंजन सोई।

 [आप अनुभव को थोप नहीं सकते, बना नहीं सकते, ये अपने आप उठता है समाप्त हो जाता है।]



प्रतीत्यसमुत्पाद का पन्थनिरपेक्ष, सार्वजनीन स्वभाव

इसकी बारह कड़ियाँ सभी प्राणियों पर समान रूप से लागू होती हैं। मनुष्य भाव में भी, मनुष्य की मान्यता चाहे जो भी हो, पर राग जगाने पर, या द्वेष जगाने पर व्याकुल होना, बेचैन होना, छटपटाना हमारी मान्यता के परे है। यही दुख है। अनचाही होना तो दुख है ही, मन चाही का होने के बाद समाप्त हो जाना भी दुख है। हमारी मान्यता जो भी हो, ये नियम सभी पर समान रूप से लागू होते हैं। जब हम राग-द्वेष कम कर देते हैं, बन्द कर देते हैं, उनके न होने से जो स्थिति उत्पन्न होती है, उसी को हम शान्ति कहते हैं, जितना राग-द्वेष जैसे चित्तवृत्तियों को हम चित्त से उखाड़ फेंकने में सफल होते हैं, उतनी ही गहरी शान्ति का हम अनुभव करते हैं।

और जिस देश में ऐसे लोग, ऐसे परिवार रहते हैं, जो अपने चित्त को राग-द्वेष जैसे चित्तमलों से दूर रख, उसे निर्मल रखते हैं, वह राज्य उस सामूहिक शक्ति से उतना ही आन्तरिक शान्ति का अनुभव करता है। वहाँ अपराध कम होने लगते हैं। तो सरकार और प्रशासन में भी भ्रष्टाचार कम होने लगता है, और वे नागरिकों के भले के लिए स्वतः कार्य करने लगते हैं।


सम्राट अशोक धार्मिक राज्य का प्रयोग

सम्राट अशोक का साम्राज्य शायद 50 लाख वर्ग कि मि से ज्यादा का रहा होगा और उनके शब्द मात्र को मैत्रीभाव से स्वीकार कर उसका पालन करने वाला क्षेत्र और अधिक। धर्म का आश्रय ले कर वे खुद बताते हैं कि अपराध कम हो गए। तो राज्य नागरिकों के मंगल के लिए अनेकों कार्य करता रहा। तेरहवें अभिलेख से भी यह स्पष्ट है कि अशोक के धार्मिक होने से उनके बलशाली सेना के रखने पर कोई अन्तर नहीं आया, केवल बदलाव ये था कि इस सैन्यबल का उपयोग कब कहाँ करना है, कब नहीं करना है, ये स्पष्ट हो गया। साम्राज्य पहले ही से इतना फैला था, कि उस समय के संचार यंत्र और यातायात के साधनों को देखते हुए ये नहीं लगता कि और फैलाने से उन्हें कोई लाभ होता। इतिहास में जब भी किसी ने इतना बड़ा साम्राज्य बनाने की चेष्टा की है, उसका परिणाम हम जानते ही हैं। तो शान्ति, मैत्री, धर्म का पालन ही श्रेष्ठ उपाय थे, जिनका उन्होंने निर्वहन किया।


भारत में नए संसद का निर्माण हो रहा है, धर्मचक्र नए संसद भवन के शीर्ष पर है, भारत पंथनिरपेक्ष रहे, पर धर्मनिरपेक्ष नहीं।

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